“जहाँ फूटते थे छोटे-छोटे गढ़, वहीं अजयपाल ने एक एकीकृत राज्य बनाया।”
15वीं–16वीं शताब्दी में गढ़वाल एक विखंडित पहाड़ी क्षेत्र था, जहाँ छोटे-छोटे गढ़ (किले) अपने-अपने गढ़पतियों द्वारा शासित थे। इस भ्रांत वातावरण को चुनौती दी पंवार राजा अजयपाल ने, जिन्होंने लगभग 1500 से 1548 के बीच एक संगठित, एकीकृत गढ़वाल राज्य की नींव रखी।
अजयपाल कौन थे?
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37वीं पीढ़ी के पंवार राजा, आनन्दपाल के पुत्र, जिन्होंने चान्दपुरगढ़ी (चाँदपुर) की गद्दी संभाली ।
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शासनकाल लगभग 1490–1519 (कुछ स्रोतों में 1500–1548 तक) बताया गया है ।
52 गढ़ों का एकीकरण: गढ़वाल की स्थापना
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अजयपाल ने अपने राज्य की पहली बड़ी विजय के तौर पर गढ़वाल की सीमा में पड़ने वाले 48 से 52 छोटे-छोटे गढ़ों को क्रमशः जीतकर उन्हें एक सूत्र में बांधा ।
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इतिहास में इन्हें "गढ़वाल का अशोक" कहते हैं उनके पराक्रम को अशोक की तरह व्यापक माना गया ।
राजधानी और प्रशासनिक सुधार
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राजधानी का स्थानांतरण:
• 1512 में चाँदपुरगढ़ से देवलगढ़ में और 1517 में श्रीनगर (गढ़वाल) स्थापित की गई जिसे बाद में श्रीयंत्र के नाम से जाना गया । -
शहरी नियोजन: श्रीनगर में महल, स्नानागार, सुरंग, व्रद्धिनगर जैसी संरचनाएँ बनवाई गईं ।
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धार्मिक पहल: देवलगढ़ में “राजराजेश्वरी” मंदिर और श्रीनगर में कालिका देवी मठ स्थापित किया ।
नीतियाँ और साम्राज्य विस्तार
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अजयपाल ने विजित गढ़पतियों को जागीरें और प्रशासनिक अधिकार देकर उनका भरोसा जीता इससे राज्य में स्थिरता बनी ।
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गोरखनाथ सम्प्रदाय से जुड़कर उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहचान मजबूत की ।
युद्ध और राजनैतिक चुनौती
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शुरुआती संघर्ष में उन्हें चम्पावत के राजा की ओर से युद्ध का सामना करना पड़ा, जिसमें प्रथम में पराजय हुई लेकिन बाद में शिव-आशीर्वाद से विजय प्राप्त की गई ।
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यह युद्ध गढ़वाल की संप्रभुता की पुष्टि था।
विरासत और ऐतिहासिक महत्व
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अजयपाल ने गढ़वाल की ऐतिहासिक पहचान बनाई जिसके कारण आज पूरा हिमालयी अंचल "गढ़वाल" नाम से जाना जाता है ।
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उन्होंने गढ़वाल को एक मजबूत, संगठित और सांस्कृतिक राज्य का रूप दिया, जिसकी नींव 300 वर्षों तक पंवार वंश ने बनायी रखी।
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उनके बाद भी गढ़वाल में कई आक्रमण (गोरखा, अंग्रेज़) आए, लेकिन अजयपाल द्वारा स्थापित प्रशासनशक्ति ने उन्हें चुनौतियों का सामना करने लायक बनाया ।
निष्कर्ष
राजा अजयपाल हिमालयी गढ़वाल के इतिहास में एक आदर्श संस्थापक थे। उनके समर्पण ने छोटे सामंतों के विखंडित पहाड़ी क्षेत्रों को एक स्वरूप दिया, जिससे गढ़वाल आजादी, संस्कृति और परंपरा के साथ पहचाना जाने लगा। उनके योगदान को आज भी "गढ़वाल का अशोक" कहकर याद किया जाता है।