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"वेदों की दृष्टि से ब्रह्मांड: शून्य से विराट तक की आध्यात्मिक यात्रा" |
मुख्य बिंदु:
- वेदों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति:ऋग्वेद में "नासदीय सूक्त" ब्रह्मांड की उत्पत्ति को शून्य और सृजन की स्थिति से जोड़ता है। यह क्वांटम फ्लक्चुएशन जैसी अवधारणाओं के निकट प्रतीत होता है।
- त्रिलोक की अवधारणा:भू (पृथ्वी), भुव: (अंतरिक्ष), स्व: (स्वर्ग) — यह त्रिलोक वैदिक ब्रह्मांड की मूल रचना है।
- कालचक्र और युग:एक 'ब्रह्मा का दिन' = 4.32 अरब वर्ष, जो वैज्ञानिक 'बिग बैंग' काल के करीब है।
- सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्मांड:उपनिषदों में शरीर और ब्रह्मांड की समानता बताई गई है — "यथापिंडे तथाब्रह्मांडे"।
सनातन धर्म में ब्रह्मांड की परिकल्पना: क्या वेदों में छिपा है आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान का रहस्य?
प्रस्तावना
क्या आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर आधुनिक विज्ञान आज भी शोध कर रहा है, उसकी गूढ़ व्याख्या हजारों साल पुराने वेदों और उपनिषदों में पहले से ही मौजूद है? सनातन धर्म सिर्फ एक आस्था नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की समझ और सृष्टि के विज्ञान की गहराई से जुड़ा दर्शन है।
इस ब्लॉग में हम देखेंगे कि कैसे वेद, उपनिषद और पुराणों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति, संरचना और कालचक्र का वर्णन आधुनिक विज्ञान की कई अवधारणाओं से मेल खाता है।
1. वेदों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति: नासदीय सूक्त और शून्य की अवधारणा
ऋग्वेद के दसवें मंडल का 'नासदीय सूक्त' (10.129) ब्रह्मांड की उत्पत्ति पर एक रहस्यमय और दर्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसमें लिखा है:
"तद् एकं अवातं स्वधया तदेकं..."(तब न अस्तित्व था, न अनस्तित्व, न आकाश, न आकाश के पार...)
यह सूक्त बताता है कि सृष्टि एक 'शून्य' या अज्ञात स्थिति से उत्पन्न हुई — जो आज के वैज्ञानिक सिद्धांत 'क्वांटम फ्लक्चुएशन' (Quantum Fluctuation) से मेल खाता है, जिसमें शून्यता से ऊर्जा की सूक्ष्म हलचलों से ब्रह्मांड जन्म लेता है।
2. त्रिलोक की अवधारणा: ब्रह्मांड की तीन परतें
सनातन धर्म में ब्रह्मांड को त्रिलोक में विभाजित किया गया है:
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भू (पृथ्वी) – स्थूल, भौतिक संसार
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भुव: (अंतरिक्ष) – ऊर्जा और ग्रहों का क्षेत्र
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स्व: (स्वर्ग) – उच्च चेतना और दिव्यता का लोक
यह संरचना न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से गूढ़ है, बल्कि इसे तीन-स्तरीय ब्रह्मांडीय मॉडल के रूप में देखा जा सकता है, जैसा कि आधुनिक खगोल विज्ञान भी ब्रह्मांड को स्थूल (matter), ऊर्जा (dark energy), और काल-स्थान (space-time) में बाँटता है।
3. कालचक्र और युग: समय की वैदिक माप
सनातन धर्म में समय (काल) को भी एक चक्रीय प्रणाली के रूप में देखा गया है — इसे 'कालचक्र' कहा जाता है। इसमें युगों की गणना इस प्रकार की गई है:
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कृतयुग (सत्य युग) – 17,28,000 वर्ष
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त्रेतायुग – 12,96,000 वर्ष
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द्वापरयुग – 8,64,000 वर्ष
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कलियुग – 4,32,000 वर्ष
यह आकड़ा आश्चर्यजनक रूप से बिग बैंग सिद्धांत से मेल खाता है, जिसके अनुसार ब्रह्मांड की आयु लगभग 13.8 अरब वर्ष है — अर्थात एक ब्रह्मा का दिन और रात मिलाकर 8.64 अरब वर्ष, जो इस अनुमान के काफ़ी निकट है।
4. सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्मांड: यथापिंडे तथाब्रह्मांडे
उपनिषदों में कहा गया है:
"यथापिंडे तथाब्रह्मांडे"(जैसे शरीर में, वैसे ही ब्रह्मांड में)
यह सिद्धांत बताता है कि मानव शरीर और ब्रह्मांड की संरचना समान है — सूक्ष्म और स्थूल रूपों में। आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहें तो यह एक प्रकार की फ्रैक्टल ज्यामिति (Fractal Geometry) या होलोग्राफिक यूनिवर्स थ्योरी जैसी अवधारणा है, जिसमें प्रत्येक भाग में सम्पूर्णता की झलक होती है।
निष्कर्ष: क्या सनातन धर्म आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान से आगे है?
सनातन धर्म कोई केवल 'धार्मिक पुस्तकें' नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की वैज्ञानिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक व्याख्या है। चाहे वह ऋग्वेद का शून्य से सृजन हो, त्रिलोक की परतें हों, या काल की अरबों वर्षों में गणना — सब कुछ यह दर्शाता है कि भारत के प्राचीन ऋषियों की चेतना ब्रह्मांडीय स्तर की थी।